Dedh Aankh Se Likhi Kahaniyan By Tej Beer Singh
डेढ़ आंख से
लिखी कहानियां
समीक्षा क्रमांक : 107
डेढ़ आंख से लिखी कहानियां (एकल कहानी संग्रह)
विधा : कहानी
द्वारा तेजबीर सिंह
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित
पृष्ट संख्या :125
मूल्य : ₹ 225
ता-उम्र देश विदेश में विभिन्न चीनी मिलों में अपनी सेवाएं प्रदान करने के पश्चात तेजबीर जी ने अपने बचपन के शौक “कहानी लेखन” को लगभग 50 वर्षों के बाद पुनः अपनी सेकेंड इनिंग में अपना साथी बनाया है एवं प्रस्तुत कहानी संग्रह उनका इस दिशा में प्रथम प्रयास है। लगभग 30 कहानियों का यह संग्रह उनके तजुर्बों की शाब्दिक अभिव्यक्ति अधिक प्रतीत हुआ जिसमें वे जीवन के विभिन्न खट्टे मीठे पलों को जीने के तजुर्बे एवं उम्र के इस सफ़र में मिले भिन्न भिन्न किरदारों से पाठक का परिचय करवाते हुए दिखे।
संग्रह की पहली कहानी
"पेंशन" एक पेंशनर के जीवन में व्याप्त ऋणात्मकता का विषय उठाती है वहीं
जीवन साथी के सहयोग एवं सकारात्मक रवैए पर भी अत्यंत खूबसूरती से, एवं शब्दों में अधिक न बयान करते
हुए सांकेतिक रूप से ही जीवन के खुशनुमा पलों को जीने व ऋणात्मकता से दूरी बनाए
रखने का संदेश देती है। लेखन की सजीवता इसे कहानी नहीं रहने देती वरन लेखक का आत्मकथ्य बना देती है । भाषा शैली
बेहद सरल है एवं पाठक को संबद्ध होने में कहीं भी अतिरिक्त प्रयास नही करना होगा।
वहीं संग्रह की एक और कहानी
"पीठ" नौकरी के दौरान किए गए घोटालों आर्थिक अपराधों एवं फलस्वरूप
प्राप्त होने वाले दंड से बचने के लिए कोई किस स्तर तक जा सकता है दर्शाते हुए यह
भी स्पष्टता के साथ सामने रख दिया की कुत्सित विचारों वाले लोगों के के लिए स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है जो कि उनके जीवन में नैतिकता से बहुत ऊपर
अपना मुकाम बना लेता है । तो जीवन के उस दौर में जब जीवन साथी की कमी बेतरह महसूस
होती है कोई अनजान, वह भी लड़की और उस पर भी उम्र में आप की पोते पोतियों की उम्र
की, कुछ ऐसे सवाल कर दे जो आपको कहीं भटका दें, तब व्यक्ति किस मानसिक उहापोह से
गुजरता है इसका अच्छा चित्रण प्रस्तुत किया है, साथ ही
जब सब कुछ स्पष्ट हो जाए तब कैसा सुकून कैसी बेफिक्री उभर कर आती है वह भी अल्प
शब्दों में ही चित्रित कर दिया है।
जीवन में एक अप्रत्याशित सवाल
कैसी उथल पुथल ला सकता है यह इस कहानी ने दर्शाया है और बाज दफा कुछेक सवालों के
हमारे जेहन में कुछ सीमित ही जवाब होते हैं तथा हम उन सवालों को भी मात्र अपने
दृष्टिकोण से नापते हैं जबकि वे तो एक भिन्न ही अर्थ लिए हुए होते हैं ।
तेजवीर जी ने किसी भी कहानी को
लिखने के लिए किसी विषय विशेष की खोज करी हो ऐसा तो प्रतीत नहीं होता वरन उनकी
लेखन शैली से स्वत: ही आभास हो जाता है, अपने परिवेश, गुजरती जिंदगी, कुछ सामान्य सी घटनाएं बस यहीं से
उन्होंने अपनी कहानियां खोज ली हैं । ऐसी ही एक कहानी “साइकिल वाली आंटी” भी है
जिन से लेखक अपने अल्प प्रवास के दौरान
मिलते हैं कुछ सुखद क्षण भी हैं किंतु आज जब वे खुशनुमा चेहरे के पीछे छिपे दर्द
को जान पाते हैं तब वह क्षण उन्हें जिंदगी का फलसफा समझा जाता है ।
“सूखे पत्ते” कहानी यूं तो
बुजुर्गों के रोजमर्रा के जीवन से, उनकी नित्य प्रति की दिनचर्या व उम्र संबंधित अनेकोनेक मुशकिलात से
जुड़ी हुई है किंतु कहानी का मूल अथवा निष्कर्ष कहानी के अंत में
लेखक ने अत्यंत खूसूरती से लिख दिया है वे कहते है की "सूखे पत्ते ही तो होते
है बूढ़े लोग, बेकार
मगर अपना वजूद दिखाने के लिए खर्र खर्र करते रहने को आंगन में पड़े रहना । फिर कभी
सील कर चुपचाप एक कोने में पड़ जाना ।
बेशक कहानी की अंतिम पंक्तियां
बहुत कुछ कह जाती हैं, बहुत सारे रास्ते खोल दे रही हैं
सोचने के लिए, बहुत सारे तजुर्बों का निचोड़ है, उनके कथन किंतु कहीं न कहीं इस
में व्याप्त नकारात्मकता को बदलते हुए भी देखा है, और जहां बदलाव नहीं हुए वहां
प्रयास तो फिर भी किए ही गए ।
“कूढ़े का ढेर”, समाज की दो बुराइयों या यूं कहे की
शरीर की दोनो भूख को बड़े ही सधे हुए अंदाज में बयान करती है। सहजता से ही
विषय वस्तु पर मजबूत पकड़ बनी हुई है जो की कहानी के अंत तक रोचकता
बनाए रखती है। नशे की लत, पेट की आग और जिस्म की भूख से अपने ही भीतर सिमटते रिश्ते, नैतिकता पर हावी होती जरूरतें थोड़े में ही बहुत कुछ कह जाती हैं ।
“ठंडी रात”, “वो खिड़की” कहानियां संक्षिप्त किंतु अर्थ पूर्ण हैं जहां एक ओर ठंडी रात जिंदगी के प्रति तमाम
ऋणात्मकताओं के बावजूद यह सोच की बिस्तर पर नही मरना और बगैर जूते पहने तो कतई
नहीं, कहीं न कहीं एक
इक्षा शक्ति अथवा आशा की किसी अदृश्य किरण की ओर इशारा करती है तो वो खिड़की
पुस्तक पर लिखे संदेश को जीवन से जोड़ते हुए अपना संदेश दे जाती है ।
तेजवीर जी की कहानियों की विशेषता कहें अथवा उनकी
प्रभावी शैली, जो
अभिव्यक्ति को इतना सजीव एवं सुंदर बना देते हैं की उनकी अधिकतर कहानियां लगती हैं
मानो आत्मकथ्य पढ़ा जा रहा हो । इसे निश्चय ही लेखक की
सफलता कहा जायेगा।
कहानी “करेला” श्वसुर को अपनी जिंदगी जीने के बीच एक रोड़ा समझती महिला के विषय में है जो अपने मन की न होने के
कारण स्वयं को स्वभाव से इतना कर्कश एवं चिढ़चिढ़ा एवं
तुनकमिजाज बना लेती है की अंततः लेखक द्वारा करेले से
उसकी तुलना कर देना ही उस पात्र की सम्पूर्ण व्याख्या कर सका । हालांकि करेले की भी कड़वाहट के साथ साथ एक
स्वाभाविक मिठास होती है किंतु यहां तो वह भी बाकी ना थी
।
नारी विमर्श केंद्रित “फायदा” और “एक नीम पागल लड़की”
दो भिन्न मानसिकताओं वाली युवतियों पर केंद्रित हैं जहां फायदा बहुत कुछ इक
तरफा आकर्षण के परिणाम एवं उसमें तलाशा
जाता फायदा है, तो वही दूसरा कथानक
आधुनिकता, मीडिया के आभासी रिश्ते एवं उनके
दुष्परिणाम को चित्रित करती है ।
“एक खत तुम्हारे लिए” दांपत्य संबंधों के बिखराव एवं
पुनः जोड़ने के प्रयासों की कहानी है, बाज दफा साथी की अथवा साथी के प्रति विमुखता के कारण वे नहीं होते जो
सामने नज़र आते हैं किंतु फिर भी सकारात्मकता से फिर
सब कुछ पूर्ववत करने के प्रयासों का किया जाना एक
उत्तम संकेत एवं संदेश है ।
“घूमते ठग” ख्वाब और हकीकत के बीच पनपती कहानी है, जिसे वास्तविकता के बहुत करीब लाने का
प्रयास किया तो गया है किंतु कथानक पूर्णतः
काल्पनिकता के संग अविश्वसनीयता लिए हुए है एवम ख्वाब से घटना को
जोड़ने का प्रयास उतना प्रभावी नहीं बन सका जिसका प्रयास लेखक द्वारा किया गया था
अर्थात जिस रूप में वह प्रस्तुति देना चाहते थे वह नहीं हुआ है ।
ठगी, धोखाधड़ी, इंसान
को समझने में की गई भूल जैसे मुद्दों पर कई किस्से हैं इस कथा संग्रह में, मिलते जुलते विषय पर एक और कहानी
है “एक लड़की” जो जाने अंजाने पहली नजर में पहली प्राथमिकता बन जाती है और
परिस्थितियों द्वारा कुछ ऐसा ताना बाना बुना जाता है
जो प्रारब्ध में तो पक्ष में आता जान पड़ता है किंतु
अंत पुनः एक बार वही है, जब इंसान स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है ।
सुंदर कहानी है जिसमें भाव एवं तथ्यों का अच्छा ताल
मेल दर्शाया है। आकर्षण में अंधा हुआ मन
और मन के दबाव में निष्क्रिय हुआ मस्तिष्क क्या क्या घटनाक्रम जोड़ते हैं जानना
रोचक है एवम संदेश भी महत्वपूर्ण है ।
“गुलमोहर”, पहले प्यार की यादें समेटती, कुछ मजहब की दीवारों की बातें
करती है यह कहानी, कथानक सुंदर है भावुकता है किंतु बहुत हद तक कहानी वास्तविकता के बेहद करीब करीब चलती है चंद
चुभते हुए सवाल छोड़ती हुई जैसे प्यार में मजहब का न मिलना कितना अहम है, या फिर दांपत्य जीवन से जुड़े कुछ सवाल ।
भिन्न मजहब के युवक युवती के बीच संबंध और फिर इस
संबंध का मजहब के कारण आगे न बढ़ पाना जैसा विषय कहानी के माध्यम से उठाना तो
सराहनीय है, किंतु इसका सकारात्मक निवारण ना निकल पाना एवं जिंदगी में
प्रौढता के कगार पर खड़े होकर उस रिश्ते की यादों में वापस लौटना कहीं न कहीं
अनुत्तरित प्रश्न छोड़ जाता है।
“अर्थी” और “बड़ा घर” दोनो ही जीवन की कटु एवं कठोर वास्तविकता
अर्थात मृत्यु से जुड़ी हुई है जहां अर्थी में बहुत ही रोचक तरीके से सामाजिकता के इस तथ्य को बयान किया है
कि व्यक्ति भले ही लाख बुरा हो उसकी
मृत्यु के बाद सिर्फ उसकी तारीफें ही की जाती हैं वहीं मकान को उदाहरण रूप में रख
यह बतलाया है की मर्जी सुख साधन बटोर ले किंतु इंसान ने जाना तो खाली हाथ ही है ।
तेजवीर जी दोनो ही कहानियों में अपनी सहज शैली के संग कथानक की रोचकता बनाए रखने
में कामयाब हुए हैं ।
इक तरफा प्यार के किस्से और उसकी परिणति
बयां करती है एक और कहानी “बटवारेका
दर्द”, जो अपनी रोचकता एवं सहज व सरल शैली तथा सुंदर
आडंबरहीन प्रस्तुति के कारण धायनाकर्षित तो करती ही है
पाठक को अपने साथ जोड़ कर रखने में भी सफल हुई है।
तो मोबाइल जो आज आम जिंदगी की ज़रूरत न रह कर असल
जिंदगी बन चुका है, उसकी कॉल हिस्ट्री से उपजी गलतफहमी को लेकर है कहानी “कॉल हिस्ट्री”। कहानी दर्शाती है की कैसे मोबाइल की कॉल हिस्ट्री दांपत्य संबंधों के बीच
में शक की दीवार निर्मित करने में अहम किरदार अदा कर सकती है ।
“कॉल हिस्ट्री” में यूं तो सब सामान्य ही है किंतु कहानी
के अंत में जिस तरह का रहस्योद्घाटन हुआ
है उसके बाद वीडियो कॉल की तार्किकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है क्योंकि दोनो ही
कथन परस्पर विरोधाभासी है । लेखक से इस और ध्यान देने का आग्रह है ।
“चौरासी”, इंदिरा जी की हत्या के बाद मुख्य रूप से दिल्ली में, जहां एक और सिखों के खिलाफ भड़के आक्रोश को
बयान करती वंही उस कठिन वख्त में चंद फरिश्तों के रूप
में मानवता की मिसाल भी पेश करती है। जुनून, दंगाई भीड़ एवं बहकाए हुए लोग एवं
समुदाय के विषय में भी बहुत कुछ कह जाती है किंतु मुख्य विषय बिंदु वही है की वह
दर्द जो उस घटना के बाद कई हजारों परिवारों ने झेला क्या वह कभी भी भुलाया जा
सकेगा।
“चिंतामणि”, एक प्रवासी महिला के संघर्ष एवं एक
सहृदय परिवार द्वारा बढ़ाए गए मदद के हाथ की, व जिंदगी में
होती उन्नति और सुधार की कहानी है, कहानी रोचकता लिए हुए है एवम अंत
विचारण के मुद्दे के संग पाठक को शोचनीय स्थिति में ले
जाता है ।
“डेढ़ आंख से लिखी कहानियां” इस संग्रह की शीर्षक
कहानी जो बहुत कुछ आत्म कथ्य ही प्रतीत हुई सिवाय चंद उन अतिरिक्त बातों और
किरदारों के जिन्हें रोचकता के उद्देश्य से समेट लिया गया है, यह लेखक की सटीक शैली का कमाल ही कहा
जायेगा की कथानक पारिवारिक रिश्तों, पैसों की उपलब्धता के बढ़ने के
साथ बढ़ती या बढ़ती प्रतीत होती नजदीकियां एवं बढ़ती
हुई तीमारदारी सभी कुछ बेहद वास्तविक प्रतीत होता है एवम निश्चय ही इसे लेखक की
लेखनी की सफलता ही कहा जाएगा।
“चौबीसवीं कहानी” और “झल्ला” भी अच्छी है, जहा चौबीसवीं कहानी गुमशुदा याददाश्त के वापस आने के विषय में है तो वही
झल्ला दर्शाती है की आज भी व्यक्ति की इज्जत और लोगों की निगाहों में उसका रुतबा
उसके पद व संपदा से होता है न की उसके ज्ञान से ।
“उम्र ना बोले” एक युवक की एक प्रौढ़ सहकर्मी के प्रति
आकर्षण एवं बढ़ते झुकाव की कहानी है जो सहज मानवीय व्यवहार को अत्यंत सहजता एवं
प्रेम भावों को कोमलता से दर्शाती है तो वहीं “हनी ट्रैप सा” रेल यात्राओं के दौरान होने
वाली विभिन्न तरीकों की ठगी में से एक के विषय में है जिसे लेखक ने आपबीती की तर्ज
पर प्रस्तुत किया है ।
और भी जो कहानियाँ संग्रह में हैं जिनका उल्लेख
उपरोक्त समीक्षा में करना रह गया है वे भी रोचक एवं सरल शैली में रचित पठनीय हैं
एवं निश्चय ही यह लेखक का सुंदर पठनीय प्रयास है। तथा इन कहानियों को पढ़ने के पश्चात,
भविष्य में उनसे अपेक्षाएं और बढ़ जाती हैं।
शुभकामनाओं
सहित,
अतुल्य
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